प्रत्येक प्रचलित मत कीहर बात को हर कोने से तर्क की कसौटी पर कसना होगा. यदि काफ़ी तर्क के बादभी वह किसी सिद्धांत या दर्शन के प्रति प्रेरित होता है, तो उसके विश्वासका स्वागत है.
उसका तर्क असत्य, भ्रमित या छलावा और कभी–कभी मिथ्याहो सकता है. लेकिन उसको सुधारा जा सकता है क्योंकि विवेक उसके जीवन कादिशा–सूचक है.लेकिन निरा विश्वास और अंधविश्वास ख़तरनाक है. यहमस्तिष्क को मूढ़ और मनुष्य को प्रतिक्रियावादी बना देता है. जो मनुष्ययथार्थवादी होने का दावा करता है उसे समस्त प्राचीन विश्वासों को चुनौतीदेनी होगी.यदि वे तर्क का प्रहार न सह सके तो टुकड़े–टुकड़े होकरगिर पड़ेंगे. तब उस व्यक्ति का पहला काम होगा, तमाम पुराने विश्वासों कोधराशायी करके नए दर्शन की स्थापना के लिए जगह साफ करना.यह तोनकारात्मक पक्ष हुआ. इसके बाद सही कार्य शुरू होगा, जिसमें पुनर्निर्माण केलिए पुराने विश्वासों की कुछ बातों का प्रयोग किया जा सकता है.जहाँ तक मेरा संबंध है, मैं शुरू से ही मानता हूँ कि इस दिशा में मैं अभी कोई विशेष अध्ययन नहीं कर पाया हूँ.एशियाई दर्शन को पढ़ने की मेरी बड़ी लालसा थी पर ऐसा करने का मुझे कोई संयोग या अवसर नहीं मिला.लेकिन जहाँ तक इस विवाद के नकारात्मक पक्ष की बात है, मैं प्राचीन विश्वासों के ठोसपन पर प्रश्न उठाने के संबंध में आश्वस्त हूँ.मुझे पूरा विश्वास है कि एक चेतन, परम–आत्मा का, जो कि प्रकृति की गति का दिग्दर्शन एवं संचालन करती है, कोई अस्तित्व नहीं है.हमप्रकृति में विश्वास करते हैं और समस्त प्रगति का ध्येय मनुष्य द्वारा, अपनी सेवा के लिए, प्रकृति पर विजय पाना है. इसको दिशा देने के लिए पीछेकोई चेतन शक्ति नहीं है. यही हमारा दर्शन है.जहाँ तक नकारात्मकपहलू की बात है, हम आस्तिकों से कुछ प्रश्न करना चाहते हैं-(i) यदि, जैसाकि आपका विश्वास है, एक सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक एवं सर्वज्ञानी ईश्वर हैजिसने कि पृथ्वी या विश्व की रचना की, तो कृपा करके मुझे यह बताएं कि उसनेयह रचना क्यों की?कष्टों और आफतों से भरी इस दुनिया में असंख्य दुखों के शाश्वत और अनंत गठबंधनों से ग्रसित एक भी प्राणी पूरी तरह सुखी नहीं.कृपया, यह न कहें कि यही उसका नियम है. यदि वह किसी नियम में बँधा है तो वह सर्वशक्तिमान नहीं. फिर तो वह भी हमारी ही तरह गुलाम है.कृपा करके यह भी न कहें कि यह उसका शग़ल है.नीरोने सिर्फ एक रोम जलाकर राख किया था. उसने चंद लोगों की हत्या की थी. उसनेतो बहुत थोड़ा दुख पैदा किया, अपने शौक और मनोरंजन के लिए.और उसका इतिहास में क्या स्थान है? उसे इतिहासकार किस नाम से बुलाते हैं?
सभी विषैले विशेषण उस पर बरसाए जाते हैं. जालिम, निर्दयी, शैतान–जैसे शब्दों से नीरो की भर्त्सना में पृष्ठ–के पृष्ठ रंगे पड़े हैं.एक चंगेज़ खाँ ने अपने आनंद के लिए कुछ हजार ज़ानें ले लीं और आज हम उसके नाम से घृणा करते हैं.तबफिर तुम उस सर्वशक्तिमान अनंत नीरो को जो हर दिन, हर घंटे और हर मिनटअसंख्य दुख देता रहा है और अभी भी दे रहा है, किस तरह न्यायोचित ठहराते हो?
फिर तुम उसके उन दुष्कर्मों की हिमायत कैसे करोगे, जो हर पल चंगेज़ के दुष्कर्मों को भी मात दिए जा रहे हैं?
मैं पूछता हूँ कि उसने यह दुनिया बनाई ही क्यों थी–ऐसी दुनिया जो सचमुच का नर्क है, अनंत और गहन वेदना का घर है?
सर्वशक्तिमान ने मनुष्य का सृजन क्यों किया जबकि उसके पास मनुष्य का सृजन न करने की ताक़त थी?
इनसब बातों का तुम्हारे पास क्या जवाब है? तुम यह कहोगे कि यह सब अगले जन्ममें, इन निर्दोष कष्ट सहने वालों को पुरस्कार और ग़लती करने वालों को दंडदेने के लिए हो रहा है.ठीक है, ठीक है. तुम कब तक उस व्यक्ति कोउचित ठहराते रहोगे जो हमारे शरीर को जख्मी करने का साहस इसलिए करता है किबाद में इस पर बहुत कोमल तथा आरामदायक मलहम लगाएगा?
ग्लैडिएटरसंस्था के व्यवस्थापकों तथा सहायकों का यह काम कहाँ तक उचित था कि एकभूखे–खूँख्वार शेर के सामने मनुष्य को फेंक दो कि यदि वह उस जंगली जानवर सेबचकर अपनी जान बचा लेता है तो उसकी खूब देख–भाल की जाएगी?
इसलिएमैं पूछता हूँ, ‘‘उस परम चेतन और सर्वोच्च सत्ता ने इस विश्व और उसमेंमनुष्यों का सृजन क्यों किया? आनंद लुटने के लिए? तब उसमें और नीरो मेंक्या फर्क है?’’
मुसलमानों और ईसाइयों. हिंदू–दर्शन के पास अभी औरभी तर्क हो सकते हैं. मैं पूछता हूँ कि तुम्हारे पास ऊपर पूछे गए प्रश्नोंका क्या उत्तर है?
तुम तो पूर्व जन्म में विश्वास नहीं करते. तुम तोहिन्दुओं की तरह यह तर्क पेश नहीं कर सकते कि प्रत्यक्षतः निर्दोषव्यक्तियों के कष्ट उनके पूर्व जन्मों के कुकर्मों का फल है.मैं तुमसे पूछता हूँ कि उस सर्वशक्तिशाली ने विश्व की उत्पत्ति के लिए छः दिन मेहनत क्यों की और यह क्यों कहा था कि सब ठीक है.उसे आज ही बुलाओ, उसे पिछला इतिहास दिखाओ. उसे मौजूदा परिस्थितियों का अध्ययन करने दो.फिर हम देखेंगे कि क्या वह आज भी यह कहने का साहस करता है– सब ठीक है.कारावासकी काल–कोठरियों से लेकर, झोपड़ियों और बस्तियों में भूख से तड़पतेलाखों–लाख इंसानों के समुदाय से लेकर, उन शोषित मजदूरों से लेकर जोपूँजीवादी पिशाच द्वारा खून चूसने की क्रिया को धैर्यपूर्वक या कहना चाहिए, निरुत्साहित होकर देख रहे हैं.और उस मानव–शक्ति की बर्बादी देखरहे हैं जिसे देखकर कोई भी व्यक्ति, जिसे तनिक भी सहज ज्ञान है, भय से सिहरउठेगा; और अधिक उत्पादन को जरूरतमंद लोगों में बाँटने के बजाय समुद्र मेंफेंक देने को बेहतर समझने से लेकर राजाओं के उन महलों तक–जिनकी नींव मानवकी हड्डियों पर पड़ी है…उसको यह सब देखने दो और फिर कहे–‘‘सबकुछ ठीकहै.’’ क्यों और किसलिए? यही मेरा प्रश्न है. तुम चुप हो? ठीक है, तो मैंअपनी बात आगे बढ़ाता हूँ.और तुम हिंदुओ, तुम कहते हो कि आज जो लोग कष्ट भोग रहे हैं, ये पूर्वजन्म के पापी हैं. ठीक है.तुम कहते हो आज के उत्पीड़क पिछले जन्मों में साधु पुरुष थे, अतः वे सत्ता का आनंद लूट रहे हैं.मुझे यह मानना पड़ता है कि आपके पूर्वज बहुत चालाक व्यक्ति थे.उन्होंने ऐसे सिद्धांत गढ़े जिनमें तर्क और अविश्वास के सभी प्रयासों को विफल करने की काफी ताकत है.लेकिन हमें यह विश्लेषण करना है कि ये बातें कहाँ तक टिकती हैं.न्यायशास्त्रके सर्वाधिक प्रसिद्ध विद्वानों के अनुसार, दंड को अपराधी पर पड़नेवालेअसर के आधार पर, केवल तीन–चार कारणों से उचित ठहराया जा सकता है. वे हैंप्रतिकार, भय तथा सुधार.आज सभी प्रगतिशील विचारकों द्वारा प्रतिकार के सिद्धांत की निंदा की जाती है. भयभीत करने के सिद्धांत का भी अंत वही है.केवलसुधार करने का सिद्धांत ही आवश्यक है और मानवता की प्रगति का अटूट अंग है.इसका उद्देश्य अपराधी को एक अत्यंत योग्य तथा शांतिप्रिय नागरिक के रूपमें समाज को लौटाना है.लेकिन यदि हम यह बात मान भी लें कि कुछमनुष्यों ने (पूर्व जन्म में) पाप किए हैं तो ईश्वर द्वारा उन्हें दिए गएदंड की प्रकृति क्या है?
तुम कहते हो कि वह उन्हें गाय, बिल्ली, पेड़, जड़ी–बूटी या जानवर बनाकर पैदा करता है. तुम ऐसे 84 लाख दंडों को गिनाते हो.मैंपूछता हूँ कि मनुष्य पर सुधारक के रूप में इनका क्या असर है? तुम ऐसेकितने व्यक्तियों से मिले हो जो यह कहते हैं कि वे किसी पाप के कारणपूर्वजन्म में गदहा के रूप में पैदा हुए थे? एक भी नहीं?
अपनेपुराणों से उदाहरण मत दो. मेरे पास तुम्हारी पौराणिक कथाओं के लिए कोईस्थान नहीं है. और फिर, क्या तुम्हें पता है कि दुनिया में सबसे बड़ा पापगरीब होना है? गरीबी एक अभिशाप है, वह एक दंड है.मैं पूछता हूँ किअपराध–विज्ञान, न्यायशास्त्र या विधिशास्त्र के एक ऐसे विद्वान की आप कहाँतक प्रशंसा करेंगे जो किसी ऐसी दंड–प्रक्रिया की व्यवस्था करे जो किअनिवार्यतः मनुष्य को और अधिक अपराध करने को बाध्य करे?
क्यातुम्हारे ईश्वर ने यह नहीं सोचा था? या उसको भी ये सारी बातें–मानवताद्वारा अकथनीय कष्टों के झेलने की कीमत पर–अनुभव से सीखनी थीं? तुम क्यासोचते हो.किसी गरीब तथा अनपढ़ परिवार, जैसे एक चमार या मेहतर केयहाँ पैदा होने पर इन्सान का भाग्य क्या होगा? चूँकि वह गरीब हैं, इसलिएपढ़ाई नहीं कर सकता.वह अपने उन साथियों से तिरस्कृत और त्यक्त रहता है जो ऊँची जाति में पैदा होने की वजह से अपने को उससे ऊँचा समझते हैं.उसका अज्ञान, उसकी गरीबी तथा उससे किया गया व्यवहार उसके हृदय को समाज के प्रति निष्ठुर बना देते हैं.मान लो यदि वह कोई पाप करता है तो उसका फल कौन भोगेगा? ईश्वर, वह स्वयं या समाज के मनीषी?
औरउन लोगों के दंड के बारे में तुम क्या कहोगे जिन्हें दंभी और घमंडीब्राह्मणों ने जान–बूझकर अज्ञानी बनाए रखा तथा जिन्हें तुम्हारी ज्ञान कीपवित्र पुस्तकों–वेदोंके कुछ वाक्य सुन लेने के कारण कान में पिघले सीसेकी धारा को सहने की सज़ा भुगतनी पड़ती थी?
यदि वे कोई अपराध करते हैं तो उसके लिए कौन ज़िम्मेदार होगा और उसका प्रहार कौन सहेगा?
मेरेप्रिय दोस्तो. ये सारे सिद्धांत विशेषाधिकार युक्त लोगों के आविष्कार हैं.ये अपनी हथियाई हुई शक्ति, पूँजी तथा उच्चता को इन सिद्धान्तों के आधार परसही ठहराते हैं.जी हाँ, शायद वह अपटन सिंक्लेयर ही था, जिसनेकिसी जगह लिखा था कि मनुष्य को बस (आत्मा की) अमरता में विश्वास दिला दो औरउसके बाद उसका सारा धन–संपत्ति लूट लो.वह बगैर बड़बड़ाए इस कार्यमें तुम्हारी सहायता करेगा. धर्म के उपदेशकों तथा सत्ता के स्वामियों केगठबंधन से ही जेल, फाँसीघर, कोड़े और ये सिद्धांत उपजते हैं.मैं पूछता हूँ कि तुम्हारा सर्वशक्तिशाली ईश्वर हर व्यक्ति को उस समय क्यों नहीं रोकता है जब वह कोई पाप या अपराध कर रहा होता है?
येतो वह बहुत आसानी से कर सकता है. उसने क्यों नहीं लड़ाकू राजाओं को याउनके अंदर लड़ने के उन्माद को समाप्त किया और इस प्रकार विश्वयुद्ध द्वारामानवता पर पड़ने वाली विपत्तियों से उसे क्यों नहीं बचाया?
उसने अंग्रेज़ों के मस्तिष्क में भारत को मुक्त कर देने हेतु भावना क्यों नहीं पैदा की?
वहक्यों नहीं पूँजीपतियों के हृदय में यह परोपकारी उत्साह भर देता कि वेउत्पादन के साधनों पर व्यक्तिगत संपत्ति का अपना अधिकार त्याग दें और इसप्रकार न केवल सम्पूर्ण श्रमिक समुदाय, वरन समस्त मानव–समाज को पूँजीवाद कीबेड़ियों से मुक्त करें.आप समाजवाद की व्यावहारिकता पर तर्क करना चाहते हैं. मैं इसे आपके सर्वशक्तिमान पर छोड़ देता हूँ कि वह इसे लागू करे.जहाँतक जनसामान्य की भलाई की बात है, लोग समाजवाद के गुणों को मानते हैं, परवह इसके व्यावहारिक न होने का बहाना लेकर इसका विरोध करते हैं.चलो, आपका परमात्मा आए और वह हर चीज़ को सही तरीके से कर दें.अबघुमा–फिराकर तर्क करने का प्रयास न करें, वह बेकार की बातें हैं. मैं आपकोयह बता दूँ कि अंग्रेज़ों की हुकूमत यहाँ इसलिए नहीं है कि ईश्वर चाहताहै, बल्कि इसलिए कि उनके पास ताक़त है और हम में उनका विरोध करने की हिम्मतनहीं.वे हमें अपने प्रभुत्व में ईश्वर की सहायता से नहीं रखे हुएहैं बल्कि बंदूकों, राइफलों, बम और गोलियों, पुलिस और सेना के सहारे रखेहुए हैं.यह हमारी ही उदासीनता है कि वे समाज के विरुद्ध सबसेनिंदनीय अपराध–एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र द्वारा अत्याचारपूर्णशोषण–सफलतापूर्वक कर रहे हैं.कहाँ है ईश्वर? वह क्या कर रहा है? क्या वह मनुष्य जाति के इन कष्टों का मज़ा ले रहा है? वह नीरो है, चंगेज़ है, तो उसका नाश हो.क्यातुम मुझसे पूछते हो कि मैं इस विश्व की उत्पत्ति और मानव की उत्पत्ति कीव्याख्या कैसे करता हूँ? ठीक है, मैं तुम्हें बतलाता हूँ. चार्ल्स डारविनने इस विषय पर कुछ प्रकाश डालने की कोशिश की है. उसको पढ़ो.सोहनस्वामी की ‘सहज ज्ञान’ पढ़ो. तुम्हें इस सवाल का कुछ सीमा तक उत्तर मिलजाएगा. यह (विश्व–सृष्टि) एक प्राकृतिक घटना है. विभिन्न पदार्थों के, निहारिका के आकार में, आकस्मिक मिश्रण से पृथ्वी बनी.कब? इतिहास देखो. इसी प्रकार की घटना का जंतु पैदा हुए और एक लंबे दौर के बाद मानव. डारविन की ‘जीव की उत्पत्ति’ पढ़ो.औरतदुपरांत सारा विकास मनुष्य द्वारा प्रकृति से लगातार संघर्ष और उस परविजय पाने की चेष्टा से हुआ. यह इस घटना की संभवतः सबसे संक्षिप्त व्याख्याहै.तुम्हारा दूसरा तर्क यह हो सकता है कि क्यों एक बच्चा अंधा यालँगड़ा पैदा होता है, यदि यह उसके पूर्वजन्म में किए कार्यों का फल नहीं हैतो?
जीवविज्ञान–वेत्ताओं ने इस समस्या का वैज्ञानिक समाधान निकाला है.उनकेअनुसार इसका सारा दायित्व माता–पिता के कंधों पर है जो अपने उन कार्यों केप्रति लापरवाह अथवा अनभिज्ञ रहते हैं जो बच्चे के जन्म के पूर्व ही उसेविकलांग बना देते हैं.स्वभावतः तुम एक और प्रश्न पूछ सकतेहो–यद्यपि यह निरा बचकाना है. वह सवाल यह कि यदि ईश्वर कहीं नहीं है तो लोगउसमें विश्वास क्यों करने लगे?
मेरा उत्तर संक्षिप्त तथा स्पष्टहोगा–जिस प्रकार लोग भूत–प्रेतों तथा दुष्ट–आत्माओं में विश्वास करने लगे, उसी प्रकार ईश्वर को मानने लगे.अंतर केवल इतना है कि ईश्वर में विश्वास विश्वव्यापी है और उसका दर्शन अत्यंत विकसित.कुछउग्र परिवर्तनकारियों (रेडिकल्स) के विपरीत मैं इसकी उत्पत्ति का श्रेय उनशोषकों की प्रतिभा को नहीं देता जो परमात्मा के अस्तित्व का उपदेश देकरलोगों को अपने प्रभुत्व में रखना चाहते थे और उनसे अपनी विशिष्ट स्थिति काअधिकार एवं अनुमोदन चाहते थे.यद्यपि मूल बिंदु पर मेरा उनसे विरोधनहीं है कि सभी धर्म, सम्प्रदाय, पंथ और ऐसी अन्य संस्थाएँ अन्त मेंनिर्दयी और शोषक संस्थाओं, व्यक्तियों तथा वर्गों की समर्थक हो जाती हैं.राजा के विरुद्ध विद्रोह हर धर्म में सदैव ही पाप रहा है.ईश्वरकी उत्पत्ति के बारे में मेरा अपना विचार यह है कि मनुष्य ने अपनी सीमाओं, दुर्बलताओं व कमियों को समझने के बाद, परीक्षा की घड़ियों का बहादुरी सेसामना करने स्वयं को उत्साहित करने, सभी खतरों को मर्दानगी के साथ झेलनेतथा संपन्नता एवं ऐश्वर्य में उसके विस्फोट को बाँधने के लिए–ईश्वर केकाल्पनिक अस्तित्व की रचना की.अपने व्यक्तिगत नियमों और अविभावकीय उदारता से पूर्ण ईश्वर की बढ़ा–चढ़ाकर कल्पना एवं चित्रण किया गया.जबउसकी उग्रता तथा व्यक्तिगत नियमों की चर्चा होती है तो उसका उपयोग एकडरानेवाले के रूप में किया जाता है, ताकि मनुष्य समाज के लिए एक खतरा न बनजाए.जब उसके अविभावकीय गुणों की व्याख्या होती है तो उसका उपयोग एक पिता, माता, भाई, बहन, दोस्त तथा सहायक की तरह किया जाता है.इसप्रकार जब मनुष्य अपने सभी दोस्तों के विश्वासघात और उनके द्वारा त्यागदेने से अत्यंत दुखी हो तो उसे इस विचार से सांत्वना मिल सकती है कि एकसच्चा दोस्त उसकी सहायता करने को है, उसे सहारा देगा, जो कि सर्वशक्तिमानहै और कुछ भी कर सकता है.वास्तव में आदिम काल में यह समाज के लिए उपयोगी था. विपदा में पड़े मनुष्य के लिए ईश्वर की कल्पना सहायक होती है.समाजको इस ईश्वरीय विश्वास के विरूद्ध उसी तरह लड़ना होगा जैसे कि मूर्ति–पूजातथा धर्म–संबंधी क्षुद्र विचारों के विरूद्ध लड़ना पड़ा था.इसीप्रकार मनुष्य जब अपने पैरों पर खड़ा होने का प्रयास करने लगे औरयथार्थवादी बन जाए तो उसे ईश्वरीय श्रद्धा को एक ओर फेंक देना चाहिए और उनसभी कष्टों, परेशानियों का पौरुष के साथ सामना करना चाहिए जिसमेंपरिस्थितियाँ उसे पलट सकती हैं.मेरी स्थिति आज यही है. यह मेरा अहंकार नहीं है.मेरेदोस्तों, यह मेरे सोचने का ही तरीका है जिसने मुझे नास्तिक बनाया है. मैंनहीं जानता कि ईश्वर में विश्वास और रोज़–बरोज़ की प्रार्थना–जिसे मैंमनुष्य का सबसे अधिक स्वार्थी और गिरा हुआ काम मानता हूँ–मेरे लिए सहायकसिद्घ होगी या मेरी स्थिति को और चौपट कर देगी.मैंने उन नास्तिकोंके बारे में पढ़ा है, जिन्होंने सभी विपदाओं का बहादुरी से सामना किया, अतः मैं भी एक मर्द की तरह फाँसी के फंदे की अंतिम घड़ी तक सिर ऊँचा किएखड़ा रहना चाहता हूँ.देखना है कि मैं इस पर कितना खरा उतर पाता हूँ. मेरे एक दोस्त ने मुझे प्रार्थना करने को कहा.जबमैंने उसे अपने नास्तिक होने की बात बतलाई तो उसने कहा, ‘देख लेना, अपनेअंतिम दिनों में तुम ईश्वर को मानने लगोगे.’ मैंने कहा, ‘नहीं प्रिय महोदय, ऐसा नहीं होगा. ऐसा करना मेरे लिए अपमानजनक तथा पराजय की बात होगी.स्वार्थ के लिए मैं प्रार्थना नहीं करूँगा.’ पाठकों और दोस्तो, क्या यह अहंकार है? अगर है, तो मैं इसे स्वीकार करता हूँ.